Sunday 17 May 2015


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जमनालाल बजाज

जमनालाल बजाज का जन्म 1889 ई. में जयपुर में हुआ था।
इन्हें वर्धा के एक धनवान दम्पत्ति ने गोद ले लिया था।
वे 1915 ई. में गांधीजी के सम्पर्क में आए तथा जीवनभर उनसे प्रभावित रहे।
1920 ई. में वे कांग्रेस के कोषाध्यक्ष बने तथा इस पद पर यह जीवनभर रहे।
1924 ई. में वे नागपुर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष बने।
1921 ई. में उन्होंने रायबहादुर की अपनी पदवी त्याग दी तथा वर्धा में ‘सत्याग्रह आश्रम’ की स्थापना की।
इसके अलावा गौ सेवा संघ, गांधी सेवा संघ, सस्ता साहित्य मण्डल आदि संस्थाआं की स्थापना भी उनके द्वारा की गई।
उन्होंने 1936 ई. को गांधी को सेगान नामक गांव उपहार में दिया, जिसका गांधी ने ‘सेवाग्राम’ नाम रखा।
उन्होंने ग्रामीण उद्योगों पर बल दिया।
वे जाति भेद के विरोधी थे तथा उन्होंने हरिजन उत्थान के लिए भी प्रयत्न किया।
कांग्रेस के आन्दोलनों में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही।
1942 ई. में उनकी मृत्यु हो गई।
आपकी स्मृति में सामाजिक क्षेत्रों में सराहनीय कार्य करने के लिये जमनालाल बजाज पुरस्कार की स्थापना की गयी है

दुर्गाबाई देशमुख

देशमुख

पूरा नाम दुर्गाबाई देशमुख
जन्म 15 जुलाई, 1909
मृत्यु 9 अप्रैल, 1981[1]
पति/पत्नी सी. डी. देशमुख
नागरिकता भारतीय
जेल यात्रा दो बार (पहले एक वर्ष दूसरी बार तीन वर्ष)
विद्यालय मद्रास विश्वविद्यालय
शिक्षा एम.ए., वकालत
पुरस्कार-उपाधि पद्म विभूषण (1975)
दुर्गाबाई देशमुख (अंग्रेज़ी: Durgabai Deshmukh, जन्म: 15 जुलाई, 1909 – मृत्यु: 9 अप्रैल, 1981)[1] आंध्र प्रदेश की प्रथम महिला नेता जिनका जन्म 15 जुलाई, 1909 ई. को राजामुंद्री में एक मध्यम स्तर के परिवार में हुआ था। उनके पिता का बाल्यकाल में ही देहांत हो गया। उनकी मां राजनीति में भाग लेती थीं और कांग्रेस कमेटी की सचिव थीं। इसका प्रभाव दुर्गाबाई पर भी पड़ा।
जीवन परिचय

शिक्षा
दुर्गाबाई के बाल्यकाल के दिनों में बालिकाओं को विद्यालय नहीं भेजा जाता था। पर दुर्गाबाई में पढ़ने की लगन थी। उन्होंने अपने पड़ोसी एक अध्यापक से हिन्दी पढ़ना आरंभ कर किया। उन दिनों हिन्दी का प्रचार-प्रसार राष्ट्रीय आंदोलन का एक अंग था। दुर्गाबाई ने शीघ्र ही हिन्दी में इतनी योग्यता अर्जित कर ली कि 1923 में उन्होंने बालिकाओं के लिए एक विद्यालय खोल लिया। गांधी जी ने इस प्रयत्न की सराहना करके दुर्गाबाई को स्वर्णपदक से सम्मानित किया था।
जेल यात्रा
अब दुर्गाबाई सक्रिय रूप से स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने लगीं। वे अपनी मां के साथ घूम-घूम कर खद्दर बेचा करती थीं। नमक सत्याग्रह में उन्होंने प्रसिद्ध नेता टी. प्रकाशम के साथ भाग लिया। 25 मई, 1930 को वे गिरफ्तार कर लीं और एक वर्ष की सज़ा हुई। सज़ा काटकर बाहर आते ही फिर आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें पुनः गिरफ्तार करके तीन वर्ष के लिए जेल में डाल दिया। जेल की इस अवधि में दुर्गाबाई ने अपना अंग्रेज़ी भाषा का ज्ञान बढ़ाया।
महिला वकील
बाहर आने पर दुर्गाबाई ने मद्रास विश्वविद्यालय में नियमित अध्ययन आरंभ किया। वे इतनी मेधावी थीं कि एम.ए. की परीक्षा में उन्हें पांच पदक मिले। वहीं से क़ानून की डिग्री ली और 1942 में वकालत करने लगीं। कत्ल के मुक़दमे में बहस करने वाली वे पहली महिला वकील थीं।
महत्त्वपूर्ण योगदान

दुर्गाबाई 1946 में लोकसभा और संविधान परिषद् की सदस्य चुनी गईं। उन्होंने अनेक समितियों में महत्त्वपूर्ण योग दिया। 1952 में दुर्गाबाई ने सी. डी. देशमुख के साथ विवाह कर लिया। वे अनेक समाजसेवी और महिलाओं के उत्थान से संबंधित संस्थाओं की सदस्य रहीं। योजना आयोग के प्रकाशन ‘भारत में समाज सेवा का विश्वकोश’ उन्हीं की देखरेख में निकला। 1953 में दुर्गाबाई देशमुख ने केन्द्रीय ‘सोशल वेलफेयर बोर्ड’ की स्थापना की और उसकी अध्यक्ष चुनी गईं। वे जीवन-भर समाज सेवा के कार्यों से जुड़ी रहीं।
निधन

9 अप्रैल, 1981 ई. को दुर्गाबाई देशमुख का देहांत हो गया।

भगतसिंह पूरा नाम शहीद-ए-आज़म अमर शहीद सरदार

भगतसिंह

पूरा नाम शहीद-ए-आज़म अमर शहीद सरदार भगतसिंह
अन्य नाम भागां वाला
जन्म27 सितंबर, 1907
जन्म भूमिलायलपुर, पंजाब
मृत्यु23 मार्च, 1931 ई.
मृत्यु स्थानलाहौर, पंजाब
मृत्यु कारण शहीद
अविभावक सरदार किशन सिंह
धर्मसिख
आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम
जेल यात्रा असेम्बली बमकाण्ड (8 अप्रैल, 1929)
विद्यालय डी.ए.वी. स्कूल
शिक्षा बारहवीं
संबंधित लेखसुखदेव, राजगुरु
प्रमुख संगठन नौज़वान भारत सभा, कीर्ति किसान पार्टी एवं हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ
रचनाएँ आत्मकथा दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाज़े पर), आइडियल ऑफ़ सोशलिज्म (समाजवाद का आदर्श), स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार।
अमर शहीद सरदार भगतसिंह (जन्म- 27 सितंबर, 1907 ई., लायलपुर, पंजाब, मृत्यु- 23 मार्च, 1931 ई., लाहौर, पंजाब) का नाम विश्व में 20वीं शताब्दी के अमर शहीदों में बहुत ऊँचा है। भगतसिंह ने देश की आज़ादी के लिए जिस साहस के साथ शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार का मुक़ाबला किया, वह आज के युवकों के लिए एक बहुत बड़ा आदर्श है। भगतसिंह अपने देश के लिये ही जीये और उसी के लिए शहीद भी हो गये।
जीवन परिचय

भगतसिंह का जन्म 27 सितंबर, 1907 को पंजाब के ज़िला लायलपुर में बंगा गाँव (पाकिस्तान) में हुआ था, एक देशभक्त सिख परिवार में हुआ था, जिसका अनुकूल प्रभाव उन पर पड़ा था। भगतसिंह के पिता 'सरदार किशन सिंह' एवं उनके दो चाचा 'अजीतसिंह' तथा 'स्वर्णसिंह' अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ होने के कारण जेल में बन्द थे । जिस दिन भगतसिंह पैदा हुए उनके पिता एवं चाचा को जेल से रिहा किया गया । इस शुभ घड़ी के अवसर पर भगतसिंह के घर में खुशी और भी बढ़ गयी थी । भगतसिंह की दादी ने बच्चे का नाम 'भागां वाला' (अच्छे भाग्य वाला) रखा । बाद में उन्हें 'भगतसिंह' कहा जाने लगा । वे 14 वर्ष की आयु से ही पंजाब की क्रान्तिकारी संस्थाओं में कार्य करने लगे थे। डी.ए.वी. स्कूल से उन्होंने नवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। 1923 में इंटरमीडिएट की परीक्षा पास करने के बाद उन्हें विवाह बन्धन में बाँधने की तैयारियाँ होने लगी तो वे लाहौर से भागकर कानपुर आ गये।
सम्पादकीय लेख

कानपुर में उन्हें श्री गणेश शंकर विद्यार्थी का हार्दिक सहयोग भी प्राप्त हुआ। देश की स्वतंत्रता के लिए अखिल भारतीय स्तर पर क्रान्तिकारी दल का पुनर्गठन करने का श्रेय सरदार भगतसिंह को ही जाता है। उन्होंने कानपुर के 'प्रताप' में 'बलवंत सिंह' के नाम से तथा दिल्ली में 'अर्जुन' के सम्पादकीय विभाग में 'अर्जुन सिंह' के नाम से कुछ समय काम किया और अपने को 'नौजवान भारत सभा' से भी सम्बद्ध रखा।
क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में

1919 में रॉलेक्ट एक्ट के विरोध में संपूर्ण भारत में प्रदर्शन हो रहे थे और इसी वर्ष 13 अप्रैल को जलियांवाला बाग़ काण्ड हुआ । इस काण्ड का समाचार सुनकर भगतसिंह लाहौर से अमृतसर पहुंचे। देश पर मर-मिटने वाले शहीदों के प्रति श्रध्दांजलि दी तथा रक्त से भीगी मिट्टी को उन्होंने एक बोतल में रख लिया, जिससे सदैव यह याद रहे कि उन्हें अपने देश और देशवासियों के अपमान का बदला लेना है ।
असहयोग आंदोलन का प्रभाव

विषय सूची
1 जीवन परिचय
2 सम्पादकीय लेख
3 क्रान्तिकारियों के सम्पर्क में
4 असहयोग आंदोलन का प्रभाव
5 सेफ्टी बिल तथा ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल का विरोध
6 असेम्बली बमकाण्ड
7 फाँसी की सज़ा
8 अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य
9 टीका टिप्पणी और संदर्भ
10 बाहरी कड़ियाँ
11 संबंधित लेख
1920 के महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर 1921 में भगतसिंह ने स्कूल छोड़ दिया। असहयोग आंदोलन से प्रभावित छात्रों के लिए लाला लाजपत राय ने लाहौर में 'नेशनल कॉलेज' की स्थापना की थी। इसी कॉलेज में भगतसिंह ने भी प्रवेश लिया। 'पंजाब नेशनल कॉलेज' में उनकी देशभक्ति की भावना फलने-फूलने लगी। इसी कॉलेज में ही यशपाल, भगवतीचरण, सुखदेव, तीर्थराम, झण्डासिंह आदि क्रांतिकारियों से संपर्क हुआ। कॉलेज में एक नेशनल नाटक क्लब भी था। इसी क्लब के माध्यम से भगतसिंह ने देशभक्तिपूर्ण नाटकों में अभिनय भी किया। ये नाटक थे -
राणा प्रताप
भारत-दुर्दशा
सम्राट चन्द्रगुप्त[1]।
वे 'चन्द्रशेखर आज़ाद' जैस महान क्रान्तिकारी के सम्पर्क में आये और बाद में उनके प्रगाढ़ मित्र बन गये। 1928 में 'सांडर्स हत्याकाण्ड' के वे प्रमुख नायक थे। 8 अप्रैल, 1929 को ऐतिहासिक 'असेम्बली बमकाण्ड' के भी वे प्रमुख अभियुक्त माने गये थे। जेल में उन्होंने भूख हड़ताल भी की थी। वास्तव में इतिहास का एक अध्याय ही भगतसिंह के साहस, शौर्य, दृढ़ सकंल्प और बलिदान की कहानियों से भरा पड़ा है।
सेफ्टी बिल तथा ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल का विरोध

विचार-विमर्श के पश्चात यह निर्णय हुआ कि इस सारे कार्य को भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु अंजाम देंगे।

पंजाब के बेटों ने लाजपत राय के ख़ून का बदला ख़ून से ले लिया। सांडर्स और उसके कुछ साथी गोलियों से भून दिए गए। उन्हीं दिनों अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में पब्लिक 'सेफ्टी बिल' और 'ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल' लाने की तैयारी में थी। ये बहुत ही दमनकारी क़ानून थे और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी। शासकों का इस बिल को क़ानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए।
असेम्बली बमकाण्ड

सुखदेव, भगतसिंह, राजगुरु
Sukhdev, Bhagat Singh and Rajguru
गंभीर विचार-विमर्श के पश्चात 8 अप्रैल 1929 का दिन असेंबली में बम फेंकने के लिए तय हुआ और इस कार्य के लिए भगत सिंह एवं बटुकेश्र्वर दत्त निश्चित हुए। यद्यपि असेंबली के बहुत से सदस्य इस दमनकारी क़ानून के विरुद्ध थे तथापि वायसराय इसे अपने विशेषाधिकार से पास करना चाहता था। इसलिए यही तय हुआ कि जब वायसराय पब्लिक सेफ्टी बिल को क़ानून बनाने के लिए प्रस्तुत करे, ठीक उसी समय धमाका किया जाए और ऐसा ही किया भी गया। जैसे ही बिल संबंधी घोषणा की गई तभी भगत सिंह ने बम फेंका। इसके पश्चात क्रांतिकारियों को गिरफ्तार करने का दौर चला। भगत सिंह और बटुकेश्र्वर दत्त को आजीवन कारावास मिला।
भगत सिंह और उनके साथियों पर 'लाहौर षडयंत्र' का मुक़दमा भी जेल में रहते ही चला। भागे हुए क्रांतिकारियों में प्रमुख राजगुरु पूना से गिरफ़्तार करके लाए गए। अंत में अदालत ने वही फैसला दिया, जिसकी पहले से ही उम्मीद थी। भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु को मृत्युदंड की सज़ा मिली।
फाँसी की सज़ा

23 मार्च 1931 की रात भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु देशभक्ति को अपराध कहकर फांसी पर लटका दिए गए। यह भी माना जाता है कि मृत्युदंड के लिए 24 मार्च की सुबह ही तय थी, लेकिन जन रोष से डरी सरकार ने 23-24 मार्च की मध्यरात्रि ही इन वीरों की जीवनलीला समाप्त कर दी और रात के अंधेरे में ही सतलुज के किनारे उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया। 'लाहौर षड़यंत्र' के मुक़दमें में भगतसिंह को फ़ाँसी की सज़ा मिली तथा 23 वर्ष 5 माह और 23 दिन की आयु में ही, 23 मार्च 1931 की रात में उन्होंने हँसते-हँसते संसार से विदा ले ली। भगतसिंह के उदय से न केवल अपने देश के स्वतंत्रता संघर्ष को गति मिली वरन् नवयुवकों के लिए भी प्रेरणा स्रोत सिद्ध हुआ। वे देश के समस्त शहीदों के सिरमौर थे। 24 मार्च को यह समाचार जब देशवासियों को मिला तो लोग वहां पहुंचे, जहां इन शहीदों की पवित्र राख और कुछ अस्थियां पड़ी थीं। देश के दीवाने उस राख को ही सिर पर लगाए उन अस्थियों को संभाले अंग्रेज़ी साम्राज्य को उखाड़ फेंकने का संकल्प लेने लगे। देश और विदेश के प्रमुख नेताओं और पत्रों ने अंग्रेज़ी सरकार के इस काले कारनामे की तीव्र निंदा की।
वर्ष घटनाक्रम
1919 वर्ष 1919 से लगाये गये 'शासन सुधार अधिनियमों' की जांच के लिए फ़रवरी 1928 में 'साइमन कमीशन' मुम्बई पहुंचा। पूरे भारत देश में इसका व्यापक विरोध हुआ।
1926 भगतसिंह ने लाहौर में 'नौजवान भारत सभा' का गठन किया । यह सभा धर्मनिरपेक्ष संस्था थी।
1927दशहरे वाले दिन छल से भगतसिंह को गिरफ़्तार कर लिया गया। झूठा मुक़दमा चला किन्तु वे भगतसिंह पर आरोप सिद्ध नहीं कर पाए, मजबूरन भगतसिंह को छोड़ना पड़ा ।
1927 'काकोरी केस' में रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक उल्ला, राजेन्द्र लाहिड़ी और रोशनसिंह को फांसी दे दी गई ।
सितंबर, 1928 क्रांतिकारियों की बैठक दिल्ली के फिरोजशाह के खण्डरों में हुई, जिसमें भगतसिंह के परामर्श पर 'हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन' का नाम बदलकर 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन' कर दिया गया ।
30 अक्टूबर, 1928 कमीशन लाहौर पहुंचा। लाला लाजपत राय के नेतृत्व में कमीशन के विरोध में शांतिपूर्ण प्रदर्शन हुआ। जिसमें लाला लाजपतराय पर लाठी बरसायी गयीं। वे ख़ून से लहूलुहान हो गए। भगतसिंह ने यह सब अपनी आंखों से देखा।
17 नवम्बर, 1928 लाला जी का देहान्त हो गया। भगतसिंह बदला लेने के लिए तत्पर हो गए। लाला लाजपतराय की हत्या का बदला लेने के लिए 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' ने भगतसिंह, राजगुरु, सुखदेव, आज़ाद और जयगोपाल को यह कार्य दिया। क्रांतिकारियों ने साण्डर्स को मारकर लालाजी की मौत का बदला लिया।
8 अप्रैल, 1929 भगतसिंह ने निश्चित समय पर असेम्बली में बम फेंका। दोनों ने नारा लगाया 'इन्कलाब ज़िन्दाबाद'… ,अनेक पर्चे भी फेंके, जिनमें जनता का रोष प्रकट किया गया था। बम फेंककर इन्होंने स्वयं को गिरफ़्तार कराया। अपनी आवाज़ जनता तक पहुंचाने के लिए अपने मुक़दमे की पैरवी उन्होंने खुद की।
7 मई, 1929 भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त के विरूद्ध अदालत का नाटक शुरू हुआ ।
6 जून, 1929 भगतसिंह ने अपने पक्ष में वक्तव्य दिया

जिसमें भगतसिंह ने स्वतंत्रता, साम्राज्यवाद, क्रांति पर विचार रखे और क्रांतिकारियों के विचार सारी दुनिया के सामने आये।
12 जून, 1929 सेशन जज ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत आजीवन कारावास की सज़ा दी। इन्होंने सेशन जज के निर्णय के विरुध्द लाहौर हाइकोर्ट में अपील की। यहाँ भगतसिंह ने पुन: अपना भाषण दिया ।
13 जनवरी, 1930 हाईकोर्ट ने सेशन जज के निर्णय को मान्य ठहराया। इनके मुक़दमे को ट्रिब्यूनल के हवाले कर दिया ।
5 मई, 1930 पुंछ हाउस, लाहौर में मुक़दमे की सुनवाई शुरू की गई। आज़ाद ने भगतसिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी बनाई।
28 मई, 1930 भगवतीचरण बोहरा बम का परीक्षण करते समय घायल हो गए। उनकी मृत्यु हो जाने से यह योजना सफल नहीं हो सकी। अदालत की कार्रवाई लगभग तीन महीने तक चलती रही ।
मई 1930 'नौजवान भारत सभा' को गैर-क़ानूनी घोषित कर दिया गया।
26 अगस्त, 1930 अदालत ने भगतसिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 तथा 6 एफ तथा भारतीय दण्ड संहिता की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिध्द किया।
7 अक्तूबर, 1930 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगतसिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फांसी की सज़ा दी गई। लाहौर में धारा 144 लगा दी गई ।
नवम्बर 1930 प्रिवी परिषद में अपील दायर की गई परन्तु यह अपील 10 जनवरी, 1931 को रद्द कर दी गई। प्रिवी परिषद में अपील रद्द किए जाने पर भारत में ही नहीं, विदेशों में भी लोगों ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठाई ।
24 मार्च, 1931 फाँसी का समय प्रात:काल 24 मार्च, 1931 निर्धारित हुआ था।
23 मार्च, 1931 सरकार ने 23 मार्च को सायंकाल 7.33 बजे, उन्हें एक दिन पहले ही प्रात:काल की जगह संध्या समय तीनों देशभक्त क्रांतिकारियों को एक साथ फाँसी दी। भगतसिंह तथा उनके साथियों की शहादत की खबर से सारा देश शोक के सागर में डूब चुका था। मुम्बई, मद्रास तथा कलकत्ता जैसे महानगरों का माहौल चिन्तनीय हो उठा। भारत के ही नहीं विदेशी अखबारों ने भी अंग्रेज़ सरकार के इस कृत्य की बहुत आलोचनाएं कीं।
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में लिखा है –
भगतसिंह एक प्रतीक बन गया । साण्डर्स के कत्ल का कार्य तो भुला दिया गया लेकिन चिह्न शेष बना रहा और कुछ ही माह में पंजाब का प्रत्येक गांव और नगर तथा बहुत कुछ उत्तरी भारत उसके नाम से गूंज उठा । उसके बारे में बहुत से गीतों की रचना हुई और इस प्रकार उसे जो लोकप्रियता प्राप्त हुई । वह आश्चर्यचकित कर देने वाली थी

वह शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की यह पंक्तियां गाते थे–
मेरा रंग दे बसंती चोला ।
इसी रंग में रंग के शिवा ने मां का बंधन खोला ॥
मेरा रंग दे बसंती चोला
यही रंग हल्दीघाटी में खुलकर था खेला ।
नव बसंत में भारत के हित वीरों का यह मेला
मेरा रंग दे बसन्ती चोला।
अंग्रेज़ों से बचने के लिए भगतसिंह ने भेष बदला। उन्होंने अपने केश और दाढ़ी कटवाकर, पैंट पहनी और हैट लगाकर अंग्रेज़ों की आंखों में धूल झोंक कर कलकत्ता पहुंचे । कुछ दिन बाद वे आगरा गए।
'हिन्दुस्तान समाजवादी गणतंत्र संघ' की केन्द्रीय कार्यकारिणी की सभा में 'पब्लिक सेफ्टी बिल' और 'डिस्प्यूट्स बिल' के विरोध में भगतसिंह ने 'केन्द्रीय असेम्बली' में बम फेंकने का प्रस्ताव रखा । भगतसिंह के सहायक बटुकेश्वर दत्त बने ।
पिस्तौल और पुस्तक भगतसिंह के दो परम विश्वसनीय मित्र थे।
जेल में पुस्तकें पढक़र ही वे अपने समय का सदुपयोग करते थे, जेल की कालकोठरी में उन्होंने कुछ पुस्तकें भी लिखी-
आत्मकथा, दि डोर टू डेथ (मौत के दरवाज़े पर),
आइडियल ऑफ सोशलिज्म (समाजवाद का आदर्श),
स्वाधीनता की लड़ाई में पंजाब का पहला उभार।
भगतसिंह की शौहरत से प्रभावित होकर डॉ. पट्टाभिसीतारमैया ने लिखा है —
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भगतसिंह का नाम भारत में उतना ही लोकप्रिय था, जितना कि गांधी का।
लाहौर के उर्दू दैनिक समाचारपत्र 'पयाम' ने लिखा था —
हिन्दुस्तान इन तीनों शहीदों को पूरे ब्रितानिया से ऊंचा समझता है। अगर हम हज़ारों-लाखों अंग्रेज़ों को मार भी गिराएं, तो भी हम पूरा बदला नहीं चुका सकते।
यह बदला तभी पूरा होगा, अगर तुम हिन्दुस्तान को आज़ाद करा लो, तभी ब्रितानिया की शान मिट्टी में मिलेगी। ओ ! भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव, अंग्रेज़ खुश हैं कि उन्होंने तुम्हारा ख़ून कर दिया। लेकिन वो ग़लती पर हैं। उन्होंने तुम्हारा ख़ून नहीं किया, उन्होंने अपने ही भविष्य में छुरा घोंपा है।
तुम ज़िन्दा हो और हमेशा ज़िन्दा रहोगे।

सिर्फ फांसी नहीं थी, जानिए भगत सिंह की मौत का सच!

फांसी के बाद की सुबह
यह 24 मार्च 1931 की सुबह थी। और लोगों में एक अजीब सी बेचैनी थी। एक खबर लोग आसपास से सुन रहे थे और उसका सच जानने के लिए यहां-वहां भागे जा रहे थे। और अखबार तलाश रहे थे।

यह खबर थी सरदार भगत सिंह और उनके दो साथी सुखदेव और राजुगुरु की फांसी की। उस सुबह जिन लोगों को अखबार मिला उन्होंने काली पट्टी वाली हेडिंग के साथ यह खबर पढ़ी कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में पिछली शाम 7:33 पर फांसी दे दी गई। वह सोमवार का दिन था।

ऐसा कहा जाता है कि उस शाम जेल में पंद्रह मिनट तक इंकलाब जिंदाबाद के नारे गूंज रहे थे।

केंद्रीय असेम्बली में बम फेंकने के जिस मामले में भगत सिंह को फांसी की सजा हुई थी उसकी तारीख 24 मार्च तय की गई थी। लेकिन उस समय के पूरे भारत में इस फांसी को लेकर जिस तरह से प्रदर्शन और विरोध जारी था उससे सरकार डरी हुई थी। और उसी का नतीजा रहा कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को चुपचाप तरीके से तय तारीख से एक दिन पहले ही फांसी दे दी गई।

फांसी के समय जो कुछ आधिकारिक लोग शामिल थे उनमें यूरोप के डिप्टी कमिश्नर भी शामिल थे। जितेंदर सान्याल की लिखी किताब 'भगत सिंह' के अनुसार ठीक फांसी पर चढ़ने के पहले के वक्त भगत सिंह ने उनसे कहा, 'मिस्टर मजिस्ट्रेट आप बेहद भाग्यशाली हैं कि आपको यह देखने को मिल रहा है कि भारत के कांतिकारी किस तरह अपने आदर्शों के लिए फांसी पर भी झूल जाते हैं।'

ये भगत सिंह के आखिरी वाक्य थे। लेकिन भगत सिंह, सुखदेव राजगुरू की मौत के बारे में सिर्फ इतना जानना कि उन्हें फांसी हुई थी, या तय तारीख से एक दिन पहले हुई थी काफी नहीं होगा। आगे पढ़िए कि 23 मार्च की उस शाम हुआ क्या था।

फांसी के दिन क्या हुआ
जिस वक्त भगत सिंह जेल में थे उन्होंने कई किताबें पढ़ीं। 23 मार्च 1931 को शाम करीब 7 बजकर 33 मिनट पर भगत सिंह तथा इनके दो साथियों सुखदेव व राजगुरु को फांसी दे दी गई।

फांसी पर जाने से पहले वे लेनिन की जीवनी ही पढ़ रहे थे।

जेल के अधिकारियों ने जब उन्हें यह सूचना दी कि उनकी फांसी का वक्त आ गया है तो उन्होंने कहा था- "ठहरिये! पहले एक क्रान्तिकारी दूसरे से मिल तो ले।" फिर एक मिनट बाद किताब छत की ओर उछाल कर बोले - "ठीक है अब चलो।"

फांसी पर जाते समय भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू तीनों मस्ती से गा रहे थे -
मेरा रंग दे बसन्ती चोला, मेरा रंग दे;
मेरा रंग दे बसन्ती चोला। माय रंग दे बसन्ती चोला।।

फांसी के बाद कहीं कोई आन्दोलन न भड़क जाये इसके डर से अंग्रेजों ने पहले इनके मृत शरीर के टुकड़े किये फिर इसे बोरियों में भरकर फिरोजपुर की ओर ले गये जहां मिट्टी का तेल डालकर इनको जलाया जाने लगा।

गांव के लोगों ने आग जलती देखी तो करीब आये। इससे डरकर अंग्रेजों ने इनकी लाश के अधजले टुकड़ों को सतलुज नदी में फेंका और भाग गये। जब गांव वाले पास आये तब उन्होंने इनके मृत शरीर के टुकड़ो कों एकत्रित कर विधिवत दाह संस्कार किया।
मृत्यु पर विवाद
हालांकि अभी तक भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की फांसी विवादित है। इस बारे में हर जगह एक सी जानकारियां नहीं मिलतीं। लेकिन कई किताबों और फिल्मों में यह जानकारी साफ तरह से है कि 23 तारीख को आखिर क्या हुआ था।

2002 में राजकुमार संतोषी की डायरेक्ट की गई फिल्म 'द लीजेंड ऑफ सिंह' में भी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू की फांसी के बारे में यह हिस्सा दिखाया गया है।

फिल्म में यह दिखाया गया है कि भगत सिंह के परिवार और बाकी लोगों को किसी तरह इस बात की जानकारी मिल जाती है कि तीनों क्रांतिकारियों को सजा की तय तारीख से एक दिन पहले ही फांसी दी जा रही है।

फिल्म के दृष्य के अनुसार परिवार और बाकी लोग जेल के बाहर प्रदर्शन कर रहे होते हैं और अंदर उन्हें फांसी दे दी जाती है। जब लोग जेल के अंदर घुसने की कोशिश करते हैं तो उन तीनों की लाश को दूसरे गेट से बोरे में भरकर बाहर निकाला जाता है।

लेकिन प्रदर्शनकारी उन तक पहुंच जाते हैं। फिल्म में इस दृश्य के अंत में यह भी दिखाया गया है कि किस तरह ब्रिटिश पुलिस उन तीनों की लाश के टुकड़े कर उन्हें जला देती है।
क्यों हुई थी सजा
अंग्रेज़ सरकार दिल्ली की असेंबली में 'पब्लिक सेफ्टी बिल' और 'ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल' लाने की तैयारी में थी। ये बहुत ही दमनकारी क़ानून थे और सरकार इन्हें पास करने का फैसला कर चुकी थी।

शासकों का इस बिल को क़ानून बनाने के पीछे उद्देश्य था कि जनता में क्रांति का जो बीज पनप रहा है, उसे अंकुरित होने से पहले ही समाप्त कर दिया जाए। गंभीर विचार-विमर्श के पश्चात 8 अप्रैल,1929 का दिन असेंबली में बम फेंकने के लिए तय हुआ और इस कार्य के लिए भगत सिंह एवं बटुकेश्र्वर दत्त निश्चित हुए।

इस बमकांड का उद्देश्य किसी को हानि पहुँचाना नहीं था। इसलिए बम भी असेम्बली में ख़ाली स्थान पर ही फेंका गया था। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त बम फेंकने के बाद वहाँ से भागे नहीं, बल्कि स्वेच्छा से अपनी गिरफ्तारी दे दी। इस समय इन्होंने वहाँ पर्चे भी बाटें, जिसका प्रथम वाक्य था कि- बहरों को सुनाने के लिये विस्फोट के बहुत ऊँचे शब्द की आवश्यकता होती है। कुछ सुराग मिलने के बाद 'लाहौर षड़यन्त्र' केस के नाम से मुकदमा चला।

7 अक्टूबर, 1930 को फैसला सुनाया गया, जिसके अनुसार राजगुरु, सुखदेव और भगत सिंह को फांसी की सज़ा दी गई। बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावाज की सजा सुनाई गई थी।

वंदेमातरम्
जय हिन्द